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वैद्युतिक शक्ति परेषण(Electrical Power Transmission)

वैद्युतिक शक्ति परेषण(Electrical Power Transmission)

     विद्युत उत्पादन केंद्र से ग्रिड स्टेशन तक विद्युत शक्ति पहुचाना ही विद्युत शक्ति परेषण कहलाता है।

     विद्युत उत्पादन केन्द्रों में प्रायः 3.3 किलो वोल्ट, 6.6 किलो वोल्ट अथवा 11 किलो वोल्ट क्षमता के 3-फेज ए.सी. विद्युत उत्पादित किए जाते हैं, जिनको स्टेप-अप ट्रांसफॉर्मर द्वारा उच्च वोल्टता वाले 220 किलो वोल्ट ए.सी. में परिवर्तित करके ग्रीड-स्टेशनों तक भेजा जाता है। इसे प्राइमरी ट्रांसमिशन लाइन कहते है। ग्रीड-स्टेशनों के द्वारा ही विभिन्न विद्युत उत्पादन केन्द्रों को एक दूसरे से जोड़ा जाता है, जिससे यदि कोई एक विद्युत उत्पादन केंद्र में ब्रेक-डाउन होता है तो दूसरे विद्युत उत्पादन केंद्र से विद्युत शक्ति की आपूर्ति बनाए रखी जा सके। ग्रिड-स्टेशन पर 220 किलो वोल्ट को ट्रांसफार्मर की सहायता से 33 किलो वोल्ट में बदला जाता है। ग्रिड-स्टेशन से विद्युत शक्ति किसी नगर या कस्बे के सब-स्टेशन पर 33 किलो वोल्ट के रूप में पहुंचाई जाती है। इसे सेकेण्डरी ट्रांसमिशन लाइन कहते है। इन सब-स्टेशनों पर विद्युत शक्ति को स्टेप-डाउन ट्रांसफार्मर द्वारा 33 किलो वोल्ट से 11 किलो वोल्ट में परिवर्तीत करके वितरण केंद्र को भेजा जाता है। इसे प्राइमरी डिस्ट्रीब्यूशन लाइन कहते हैं। यहां से पुनः ट्रांसफार्मर द्वारा 11 किलो वोल्ट को 400 वोल्ट सप्लाई में परिवर्तीत करके उपभोक्ता को प्रदान किया जाता है। इसे सेकेण्डरी डिस्ट्रीब्यूशन लाइन कहते हैं।

वैद्युतिक शक्ति परेषण

ए.सी. व डी.सी. परेषण की तुलना-

1. ए.सी. को उच्च वोल्टता के साथ तथा डी.सी. को अपेक्षाकृत निम्न वोल्टता पर पारेषित किया जाता है। उच्च वोल्टता के कारण ए.सी. में धारा का मान कम होता है जिससे ए.सी. को पतले तार में भी पारेषित किया जा सकता है।

2. ए.सी. का लगभग 33000 बोल्ट तक उत्पादन किया जा सकता है, जबकि डी.सी. का उत्पादन समान्यतः केवल 650 वोल्ट तक ही होता है।

3. ए.सी. की वोल्टता को आसानी से तथा कम खर्चे में उच्च या निम्न में परिवर्तीत किया जा सकता है, जबकि डी.सी. में वोल्टता वृद्धि के लिए रोटरी बूस्टर तथा वोल्टता कम करने के लिए प्रतिरोध की आवश्यकता होती है, जिसमें अधिक विद्युत का व्यय होता है।

4. ए.सी. मोटर डी.सी. मोटर की अपेक्षा सरल होते हैं तथा आकार में भी छोटा होता हैं।

5. ए.सी. को आसानी से डी.सी. में परिवर्तीत किया जा सकता है, जबकि डी.सी. को ए.सी. में परिवर्तीत करने के लिए अधिक कठिनाई होती है।

डी.सी. की अपेक्षा ए.सी. के अवगुण-

1. सीमित चुम्बकीय क्षेत्र- ए.सी. में विद्युत धारा प्रवाह की दिशा निरंतर परिवर्तित होती रहती है जिससे ए.सी. से विद्युत चुम्बक नहीं बनाये जा सकते।

2. ए.सी. में वोल्टता का मान डी.सी. की अपेक्षा अधिक होता है, अतः ए.सी. वायरिंग में प्रयुक्त चालक के ऊपर उच्च सामर्थ्य वाले चालक की आवश्यकता होती है।

3. सुरक्षा की दृष्टि से ए.सी. वायरिंग में अर्थ स्थापित करना आवश्यक होता है।

4. बहुत से कार्य जैसे विद्युत लेपन, बैटरी चार्जिंग, सभी प्रकार के इलेक्ट्रॉनिक कॉम्पोनेंट्स आदि में ए.सी. नहीं उपयोग किया जा सकता है।

उच्च परेशान वोल्टता के लाभ-

1. चालक धातु की बचत- समान विद्युत शक्ति में वोल्टता अधिक होने से धारा का मान कम हो जाता है। जबकि वोल्टता कम होने पर धारा का मान बढ़ जाता है अतः जब धारा कम होगा तो पतले चालक की आवश्यकता होगी जिससे चालक धातु कम खर्चीला होगा

2. विद्युत शक्ति अपव्यय में कमी- विद्युत शक्ति व्यय P = I2R होता है अब वोल्टता अधिक होने से I का मान कम होगा जिससे विद्युत शक्ति व्यय भी घट जाएगा

3. पारेषण लाइन की दक्षता में वृद्धि- क्योंकि विद्युत शक्ति अपव्यय में कमी आ जाती है, अतः पारेषण लाइन की दक्षता बढ़ जाती है

4. अच्छा वोल्टेज रेगुलेशन- उच्च वोल्टेज तथा निम्न धारा पर शक्ति पारेषण में वोल्टेज रेगुलेशन का मान भी अधिक रहता है

5. परेशान लाइन की स्थापना लागत में बचत- क्योंकि उच्च वोल्टेज पर पारेषण में पतले तार प्रयोग किए जाते हैं अतः इनका वजन भी हल्का होता है जिससे लाइन इंसुलेटर, क्रॉस आर्म, बिजली के खम्बों आदि में भी अपेक्षाकृत बचत होती है

पारेषण लाइनों में 3-फेज 3-तार प्रणाली- विद्युत शक्ति का उत्पादन 3-फेज अल्टरनेटर द्वारा किया जाता है अतः विद्युत शक्ति का वोल्टेज 3-फेज ट्रांसफार्मर द्वारा स्टेप-अप अथवा स्टेप-डाउन किया जाता है अब हम जानते हैं कि 3-फेज ट्रांसफार्मर की वाइंडिंग स्टार अथवा डेल्टा प्रकार की होती है, यहां पर केवल फेज की सप्लाई होती है न्यूट्रल की कोई आवश्यकता नहीं होती है अतः ट्रांसफार्मर में केवल डेल्टा-डेल्टा प्रकार की वाइंडिंग की जाती है और विद्युत शक्ति का पारेषण किया जाता है अब क्योंकि उपभोक्ता को न्यूट्रल की भी आवश्यकता होती है अतः विद्युत वितरण केन्द्रों पर 11 किलो वोल्ट ए.सी. को 440 वोल्ट ए.सी. में बदलने के लिए डेल्टा-स्टार प्रकार का ट्रांसफार्मर लगाया जाता है इस ट्रांसफार्मर में इनपुट तो तीन फेज होता है लेकिन आउटपुट तीन फेज के साथ-साथ एक न्यूट्रल भी होता है अतः आउटपुट में चार तार होते हैं अब लाइट-एंड-फैन उपभोक्ता को केवल 220 वोल्ट या 230 वोल्ट की आवश्यकता होती है अतः उपभोक्ता के पास एक फेज, एक न्यूट्रल तथा सुरक्षा की दृष्टि से एक भू-संयोजन का तार कुल मिलाकर 3-तार का संयोजन प्रदान किया जाता है

पारेषण लाइनों में 3-फेज 3-तार प्रणाली

विद्युत वितरण लाइन- विद्युत वितरण केन्द्रों से विद्युत शक्ति को उपभोक्ता तक मुख्यतः दो प्रकार से पहुंचाया जाता है

1. शिरोपरि लाइन, 2. भूमिगत लाइन

1. शिरोपरि लाइन- जब विद्युत वितरण के लिए चालक(तार) खम्बों पर खींचे जाते हैं तो उसे शिरोपरि लाइन कहते हैं यह दो प्रकार के होते हैं

शिरोपरि लाइन

1. क्षैतिज लाइन- इस लाइन में तार एक दूसरे के क्षैतिज तल में स्थापित किए जाते हैं इसका उपयोग 250 वोल्ट, 400 वोल्ट, 11 किलो वोल्ट, 33 किलो वोल्ट या इससे अधिक के लिए किया जाता है

2. ऊर्ध्व लाइन- ऊर्ध्व लाइन में तार एक दूसरे के ऊपर क्रम में स्थापित किए जाते हैं इसका उपयोग केवल निम्न अथवा मध्यम (250 वोल्ट या 650 वोल्ट) वोल्टेज के लिए किया जाता है

2. भूमिगत लाइन- यह लाइन जमीन के अंदर स्थापित की जाती है इसमें 11 किलो वोल्ट या उससे कम वोल्टेज के ही लाइन स्थापित किए जाते हैं यह सुरक्षित तथा दीर्घकालिक तक उपयोग की जाने वाली लाइन है इसमें एक बार खराबी आती है तो पूरा केबल ही बदलना पड़ता है

शिरोपरि लाइन में प्रयुक्त सामग्री-

1. खम्बें(Poles)

2. क्रॉस-आर्म(Cross-arm)

3. लाइन इन्सुलेटर(Line insulator)

4. तार(Wire)

5. स्टे-रॉड तथा स्टे-वायर(Stay-rod and stay-wire)

6. गार्डिंग(Guarding)

7. क्लैम्प तथा नट-बोल्ट(Clamp and nut-bolt)

1. खम्बें(Poles)- विद्युत् लाइन को खींचने के लिए खम्बा सबसे महत्वपूर्ण है ये कई प्रकार से बनाये जाते है

1. लकड़ी- यह अस्थाई होता है इसका उपयोग कम वोल्टेज की लाइनों के लिए किया जाता है इसकी लंबाई 6 से 9 मीटर तक होती है

2. सीमेंट- यह लोहे के सरिये तथा कंक्रीट से बना होता है इसको 11 किलो वोल्ट तथा उससे कम वोल्टेज के लिए उपयोग किया जाता है

3. रेल लाइन- यह लोहे का I क्रॉस-सेक्शन का होता है यह बहुत ही मजबूत तथा स्थाई होता है इसका उपयोग भी 11 किलो वोल्ट तक के लिए किया जाता है

4. ट्यूबलर- इस खम्बें का व्यास आधार पर अधिक तथा ऊपर कुछ कम होता है इनका उपयोग भी कम वोल्टेज की लाइन के लिए किया जाता है

5. टावर- 11 किलो वोल्ट से अधिक वोल्टेज की लाइन के लिए एंगल से तैयार किए गए विभिन्न आकृति के टावर बनाये जाते हैं इनकी ऊंचाई 23 से 30 मीटर तक होती है

2. क्रॉस-आर्म- खम्बें के ऊपरी सिरे पर क्लैंप तथा नट बोल्ट की सहायता से लोहे का एंगल कसा जाता है, जिसे क्रॉस-आर्म कहते हैं क्रॉस-आर्म पर ही इन्सुलेटर लगाए जाते हैं। तथा इन्सुलेटर पर ही तार को कसा जाता है

3. लाइन इन्सुलेटर(Line Insulator)- यह प्राय: चीनी मिट्टी के बने होते हैं इनको नट बोल्ट की सहायता से क्रॉस-आर्म में कस दिया जाता है यह निम्न प्रकार के होते हैं

लाइन इन्सुलेटर

1. पिन इन्सुलेटर- इनका प्रयोग सीधी लाइन में किया जाता है यह डबल तथा ट्रिपल शेड वाले होते हैं डबल शेड का प्रयोग 650 वोल्ट तक तथा ट्रिपल शेड वाले इन्सुलेटर का प्रयोग 650 वोल्ट से अधिक वोल्टेज वाली लाइन में किया जाता है

2. शैकल इन्सुलेटर- यह डबल शेड वाले मजबूत इन्सुलेटर होते हैं इनका उपयोग सामान्यतः लाइन के अंतिम खंबे अथवा मोड़ पर किया जाता है इनको भी बोल्ट और नट की सहायता से क्रॉस-आर्म पर कसा जाता है

3. सस्पैंशन इन्सुलेटर- अधिक वोल्टेज वाली लाइनों में इस इन्सुलेटर का प्रयोग किया जाता है यह इन्सुलेटर अधिक लम्बे होते हैं जिससे लाइन का तार क्रॉस-आर्म से पर्याप्त दूरी पर रहे

4. स्टे-इन्सुलेटर- इस इन्सुलेटर का उपयोग स्टे-वायर तथा उच्च वोल्टेज लाइन के जोड़ में किया जाता है इसे स्ट्रेन इन्सुलेटर भी कहते हैं

4. तार- विद्युत पारेषण लाइन में नंगे तार प्रयोग किए जाते हैं यह अधिकांशतः कई तारों को ऐंठ कर बनाए जाते हैं तार में बहने वाली धारा के अनुसार तार का व्यास रखा जाता है

1. इकहरा नंगा तांबे का तार- इसका व्यास 6 SWG से 8 SWG तक होता है इसका उपयोग 2 किलोवाट लोड वाले सिंगल फेज के लिए किया जाता है

2. ACSR तार- इसमें एक स्टील के तार को कई एल्युमिनियम के तार के साथ ऐंठ कर बनाया जाता है

3. CCSR तार- इसमें एल्युमिनियम के स्थान पर तांबे का तार प्रयोग किया जाता है इनकी तनन सामर्थ्य अधिक होती है यह बहुत अधिक मान के धारा के लिए उपयुक्त होते हैं

5. स्टे-रॉड तथा स्टे-वायर- जब लाइन को किसी स्थान पर मोड़ना हो या अंतिम खम्बा हो तो वहां पर खम्बें पर खिंचाव बल लगता है, जिससे खम्बा टूट जाता है इससे बचने के लिए खम्बें को स्टे-रॉड तथा स्टे-वायर से संतुलित किया जाता है स्टे-वायर प्राय: 8 SWG के चार से सात वायर को ऐंठ कर बनाया जाता है स्टे-रॉड का उपयोग अधिक खिंचाव की दशा में किया जाता है

6. गार्डिंग- आंधी तूफान या अन्य किसी भी करणों से तार टूट कर नीचे गिर जाता है जिससे जान-माल की हानि होती है इससे बचने के लिए लाइन के नीचे खम्बों में कुछ हल्के तार खींच दिए जाते हैं इन तारों को अर्थ कर दिया जाता है जब भी तार टूट कर गिरता है तो इन्हीं हल्के तारों पर रुक जाता है तथा अर्थ किए होने की वजह से कोई हानि की संभावना नहीं रहती है भारतीय विद्युत नियम 88 के अनुसार सभी प्रकार की शिरोपरि लाइन पर गार्ड लगाना आवश्यक है तथा सड़क, रेलवे, नदी, नहर, टेलीफोन लाइन, भिन्न वोल्टेज की लाइन आदि को आर-पार करने की स्थिति में अतिरिक्त गार्ड की आवश्यकता होती है

7. क्लैम्प तथा नट-बोल्ट- इन्सुलेटर को क्रॉस-आर्म पर कसने के लिए तथा, क्रॉस-आर्म को खम्बें पर कसने के लिए इनका प्रयोग किया जाता है

शिरोपरि लाइन में ढील- हम जानते हैं कि किसी भी धातु का तापमान बढ़ाया जाए तो धातु में प्रसार होता है अतः शिरोपरी लाइन में भी गर्मी के दिनों में यह प्रभाव दिखाई देता है जिससे तारों की लम्बाई बढ़ जाती है और इसको ध्यान में रखकर जब खम्बों पर तार खींचें जाते हैं तो तार में कुछ ढील दिया जाता है जिससे वह जाड़े के दिनों में तनकर टूट न जाए और इतना भी ढील न दी जाए की गर्मी के दिनों में आंधी-तूफान चलने पर आपस में शार्ट हो जाएं । इसके लिए निम्न सूत्र प्रयोग किया जाता है

 ढील   =            प्रति मीटर तार का भार×(खम्बों का स्पैन मी० में )2

                                     8×तार का तनन बल 

विद्युत शक्ति लाइन की किस्में-

1. निम्न वोल्टता लाइन- 400 वोल्ट 3-फेस सर्विस लाइन निम्न वोल्टता लाइन कहलाती है यह नंगे तार अथवा केबल प्रकार की हो सकती है

2. मध्य वोल्टता लाइन- 11 किलो वोल्ट की 3-फेज 3-तार लाइन मध्य वोल्टता लाइन कहलाती है अधिकांशत: यह नंगे तार वाली होती है किंतु विशेष परिस्थितियों में इसे भूमिगत केबल के रूप में भी खींचा जाता है

3. उच्च वोल्टता लाइन- 33 kV, 66 kV, 132 kV तथा 220 kV वाली लाइन उच्च वोल्टता वाली लाइन कहलाती है यह खम्बों तथा टावर्स पर स्थापित तीन नंगे तारों के रूप में होती है यह लाइन, विद्युत् उत्पादन केन्द्रों से ग्रिड-स्टेशन तथा सब-स्टेशन को विद्युत शक्ति आपूर्ति करती है

 

विद्युत शक्ति उत्पादन(Electric Power Generation)

विद्युत शक्ति उत्पादन(Electric Power Generation)

           आज के युग में दैनिक क्रियाकलापों में विद्युत का बहुत बड़ा योगदान है। जल आपूर्ति से लेकर भोजन पकाने, ए.सी., फ्रिज आदि अनेको ऐसे विद्युत आधारित उपकरण है जिनके बिना दैनिक क्रियाकलापों को करना अत्यधिक कठिन हो जाता है। इसके अलावा अनेक यातायात के साधन, कृषि, फैक्ट्री आदि के काम है जो विद्युत आधारित हो गये है। इन सब कार्यों के लिए विद्युत शक्ति की नियमित आपूर्ति के लिए उसका नियमित उत्पादन आवश्यक है, क्योकिं विद्युत का भण्डारण बहुत ही जटिल और खर्चीली प्रक्रिया है।

विद्युत् उत्पादन की प्रमुख विधियाँ-

1. जल विद्युत संयन्त्र,          2. ऊष्मा विद्युत संयन्त्र,

3. सौर ऊर्जा संयन्त्र,             4. आणविक शक्ति संयन्त्र,

5. पवन ऊर्जा संयन्त्र

विद्युत शक्ति उत्पादन ऊर्जा के श्रोत-

ऊर्जा श्रोतों को दो वर्गों में बाटा गया है।

1. पारम्परिक ऊर्जा श्रोत-  

1. लकड़ी,            2. कोयला,           3. पेट्रालियम,   

4. परमाणविक ऊर्जा    5. प्राकृतिक गैस

2. अपारम्परिक ऊर्जा श्रोत-

1. सूर्य का प्रकाश,          2. पवन ऊर्जा,        3. ज्वार-भाटा,

4. जल प्रवाह,        5. जल वाष्प,         6. जैविक ईधन,

प्रकृति के अनुसार ऊर्जा श्रोतों को तीन वर्गों में बाटा गया है।

1. ठोस ईंधन:- लकड़ी, कोयला तथा कुछ अन्य खनिज पदार्थ, कुछ जैविक ईंधन आदि ठोस ईंधन की श्रेणी में आते है

लाभ-

1. इनका भंडारण खुले स्थानों में भी किया जा सकता है 

2. इनका परिवहन सुगम होता है

3. इनकी उत्पादन लागत कम होती है

4. इनमें विस्फोट होने की सम्भावना कम होती है

हानियां-

1. इनकी कैलोरीफिक मान काम होता है

2. जलाने के बाद अधिक मात्रा में राख बच जाती है

3. जलाने पर प्रदूषण अधिक होता है

4. जलाने के लिए पर्याप्त ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है

2. द्रवीय ईंधन:- पेट्रोल, डीजल, केरोसीन, स्प्रिट, अल्कोहल, कोलतार आदि द्रवीय ईंधन होते है

लाभ-

1. इनका कैलोरीफिक मान, ठोस ईंधन की अपेक्षा अधिक होता है

2. इनका दहन सरल होता है

3. दहन के बाद राख आदि शेष नही बचते है

4.इनका भण्डारण टैंको में सुगमता से किया जा सकता है

हानियाँ-

1. ठोस की अपेक्षा इनका मूल्य अधिक होता है

2. अधिक ज्वलनशील होने के कारण इनका भण्डारण सुरक्षित स्थानों पर ही किया जा सकता है

3. वाष्पशील होने कारण इनको बंद टैंको में ही रखा जा सकता है

3. गैसीय ईंधन:- एल.पी.जी., सी.एन.जी. हाइड्रोजन, बायो गैस, कोल-गैस, एसिटिलीन आदि गैसीय ईंधन है

लाभ-

1. इनका कैलोरीफिक मान सर्वाधिक होता है

2. इनका दहन सबसे सरल होता है

3. दहन के बाद कोई राख नही बचता है

हानियाँ-

1. इनका भण्डारण अपेक्षाकृत सबसे कठिन होता है, क्योंकि इनको उच्च दाब पर रखा जाता है

2. अत्यधिक ज्वलनशील होने के कारण इनका भण्डारण आग से सुरक्षित स्थानों पर ही किया जा सकता है

विभिन्न ऊर्जा श्रोतों से विद्युत का उत्पादन

बहुत अधिक मात्रा(व्यापारिक स्तर पर) में विद्युत का उत्पादन करने के लिए मुख्यतः अल्टरनेटर के साथ किसी प्राइम मूवर का प्रयोग किया जाता है। किन्तु कुछ जगहों पर सोलर पॉवर(सौर ऊर्जा) का उपयोग सीधे तौर पर विद्युत उत्पादन के लिए किया जाता है। विद्युत उत्पादन के लिए अल्टरनेटर का प्रयोग करते समय प्राइम-मूवर के तौर पर जिस ऊर्जा का उपयोग किया जाता है, उसी के आधार पर उस पॉवर स्टेशन का नाम रखा जाता है। जैसे जब, जल ऊर्जा का प्रयोग किया जाता है, तो उसे हाइड्रो-इलेक्ट्रिक पॉवर स्टेशन(जल-विद्युत शक्ति उत्पादन संयन्त्र), परमाणु ऊर्जा का उपयोग किया जाता है, तो उसे परमाणविक-विद्युत शक्ति उत्पादन संयन्त्र कहते है इस प्रकार से ये विभिन्न प्रकार के होते है।

1. हाइड्रो-इलेक्ट्रिक पॉवर स्टेशन(जल विद्युत परियोजना)

2. स्टीम पॉवर स्टेशन/ थर्मल पॉवर स्टेशन

3. डीजल पॉवर स्टेशन

4. परमाणु पॉवर स्टेशन

5. सौर ऊर्जा पॉवर स्टेशन

6. पवन ऊर्जा पॉवर स्टेशन

7. ज्वार-भाटा ऊर्जा पॉवर स्टेशन

8. भू-ताप ऊर्जा पॉवर स्टेशन

नोट- लगभग सभी प्रकार के पॉवर स्टेशनों में अल्टरनेटर से ही विद्युत पैदा की जाती है बस अल्टरनेटर को घुमाने के लिए प्रयुक्त प्राइम-मूवर अलग-अलग प्रकार के होते है

1. हाइड्रो-इलेक्ट्रिक पॉवर स्टेशन:- ऐसे पॉवर स्टेशन जिसमे पानी कि स्थितिज ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में बदला जाता है, उसे हाइड्रो-इलेक्ट्रिक पॉवर स्टेशन कहते है।

     इसमें नदी आदि के पानी को बांध बनाकर इकठ्ठा कर लिया जाता है, फिर इस पानी को टरबाइन के ब्लेड पर गिराया जाता है। जिससे टरबाइन घुमने लगता है। इस टरबाइन की सहायता से अल्टरनेटर को घुमाया जाता है और विद्युत का उपादान शुरु हो जाता है। इसमे प्रयोग किये जाने वाले अल्टरनेटर की घूर्णन गति बहुत कम होती है जिसके कारण इसमें पोल्स की संख्या अधिक रखा जाता है। इसमें बांध इत्यादि में प्राम्भिक लागत बहुत अधिक होता है, किन्तु एक बार बन जाने के बाद विद्युत का उत्पादन लागत बहुत कम होता है इसलिए इस पॉवर स्टेशन को सबसे उत्तम माना गया है।

जल विद्युत संयन्त्रो का वर्गीकरण

1. जल-प्रवाह नियमन पर आधारित:-

1. पोखर(Pond) रहित,      2. पोखर(Pond) सहित,      3. जलश्रोत युक्त संयन्त्र

2. लोड के आधार पर:-

1. मूल लोड संयन्त्र,       2. पम्प भण्डारण संयन्त्र,         3. पीक लोड संयन्त्र

3. शीर्ष के आधार पर:-

1. निम्न शीर्ष संयन्त्र,      2. उच्च शीर्ष संयन्त्र,               3. मध्यम शीर्ष संयन्त्र

1. पोखर रहित:- इस प्रकार के संयन्त्रो में पानी को इकठ्ठा करने की सुबिधा नही होती है। ये तभी कार्य करते है जब नदी में पानी का प्रवाह होता है। नदी में पानी का प्रवाह कम होता है तो इस संयन्त्र की क्षमता कम होती है। जबकि अधिक जल प्रवाह की दशा में जितना लोड होगा उतना ही विद्युत का उत्पादन होगा बाकी पानी व्यर्थ चला जायेगा।

2. पोखर सहित:- इस प्रकार के संयन्त्रो में पानी को इकठ्ठा करने के लिए पोखरों की व्यवस्था होती है। इसमें समय के साथ उत्पन्न लोड अस्थिरता का ध्यान रखा जाता है।  इसमें जितने लोड की आवश्यकता होती है उतना ही विद्युत का उत्पादन किया जाता है।

3. जलाशय युक्त संयन्त्र:- इस प्रकार के संयन्त्रो में बहुत बड़े पैमाने पर पानी को बांध बनाकर इकठ्ठा किया जाता है। इसमें पानी का प्रवाह आवश्यकतानुसार रखा जाता है। इसमें भी जीतने लोड की आवश्यकता होती है उतना ही विद्युत का उत्पादन किया जा सकता है।

4. मूल लोड संयन्त्र:-

5. पीक लोड संयन्त्र:-

6. पम्प भण्डारण संयन्त्र:- यह एक ऐसा संयन्त्र होता है जिसमे पीक-लोड अवधि में विद्युत शक्ति उत्पादन के लिए जल का उपयोग किया जाता है, तथा पानी को जल-तल पोखर में इकठ्ठा कर लिया जाता है ऑफ पीक अवधि में यही पानी पम्प के द्वारा शीर्ष जल पोखर में पहुचाया जाता है, जिससे पीक-अवधि में यही पानी फिर से विद्युत शक्ति उत्पादन के लिए उपयोग किया जाता है

7. निम्न शीर्ष संयन्त्र:- जब जल शीर्ष 30 मीटर से कम होता है, तो निम्न शीर्ष संयन्त्र कहलता है। इसमें पोखर से पानी को सीधे ही पेन-स्टॉक की सहायता से टरबाइन तक भेजा जाता है। इसमें प्रवाह युक्त टैंक की आवश्यकता नही होती है।

8. मध्यम शीर्ष संयन्त्र:- इनका शीर्ष 30 मी० से 100मी० के मध्य होता है। इसमें पोखर से टरबाइन तक पानी ले जाने के लिए पेन-स्टॉक का प्रयोग किया जाता है।

9. उच्च शीर्ष संयन्त्र:- 100 मीटर से अधिक शीर्ष पर प्रचालित होने वाले संयन्त्र उच्च शीर्ष संयन्त्र की श्रेणी में आते है। इनमे मुख्य जल श्रोत से सुरंग द्वारा जल, प्रवाह युक्त टैंक में लाया जाता है तथा इससे पेन-स्टॉक के द्वारा पानी टरबाइन तक भेजा जाता है। इसमें सामान्यतः फ्रांसिस टरबाइन अथवा पेल्टन-व्हील टरबाइन का प्रयोग किया जाता है।

2. थर्मल पॉवर स्टेशन:- इस पॉवर स्टेशन में विद्युत का उत्पादन दो चरणों में होता है। पहला- बायलर हाउस में स्टीम बनाना, दूसरा- जनरेटर रूम में विद्युत का उत्पादन

          सबसे पहले कोयले को जलाकर बायलर में पानी गर्म करके भाप में बदला जाता है। फिर भाप को सुपर-हीटर कि सहायता से अधिक दबाब पर लाया जाता है। फिर इस भाप को टरबाइन कि ब्लेड पर छोड़ा जाता है, जिससे टरबाइन घुमने लगता है। इस टरबाइन को अल्टरनेटर के लिए प्राइम मूवर की तरह उपयोग किया जाता है। अल्टरनेटर के घुमने से विद्युत का उत्पादन होने लगता है। इस विद्युत् को आगे सर्किट-ब्रेकर से जोड़ा जाता है तथा आगे आवश्यकतानुसार उपयोग के लिए भेजा जाता है। ऐसे पॉवर स्टेशन उसी स्थान पर बनाये जाते है जहाँ कोयले और पानी कि उपलब्धता हो।

ताप विद्युत् संयन्त्र के भाग-

1. बॉयलर- बॉयलर के अन्दर ईंधन को जलाकर पानी को भाप में बदला जाता है।

2. सुपर-हीटर- इसमें भाप को उच्च दाब पर लाया जाता है, तथा आर्द्र भाप को शुष्क किया जाता है।

3. भाप टरबाइन- उच्च ताप तथा दाब की भाप को भाप टरबाइन की ब्लेडों पर छोड़ा जाता है, जिससे टरबाइन घूमने लगता है।

4. अल्टरनेटर- टरबाइन की घूर्णन गति को अल्टरनेटर पर आरोपित किया जाता है। अल्टरनेटर घूर्णीय ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करता है।

5. कण्डेन्सर- टरबाइन में से भाप निकलकर कण्डेन्सर में जाता है। जहां भाप को ठण्डा किया जाता है, जिससे भाप पुनः पानी में बदल जाता है और इसी पानी को दोबारा पंप की सहायता से बॉयलर में भेजा जाता है।

6. इकनोमाइजर- इसका उपयोग बॉयलर की दक्षता को बढ़ाने के लिए किया जाता है। बॉयलर से निकालने वाली गर्म गैसों का उपयोग करके बॉयलर में भेजे जाने वाले पानी को गर्म किया जाता है।

विद्युत शक्ति उत्पादन

3. डीजल विद्युत पॉवर स्टेशन:- इसमे प्राइम-मूवर के लिए टरबाइन के स्थान पर डीजल इंजन प्रयोग किया जाता है। यह शक्ति संयन्त्र साधारणतया छोटा होता है। इनका उपयोग उसी स्थान पर किया जाता है, जहाँ पर विद्युत की आवश्यकता होती है तथा आपातकालीन विद्युत की आवश्यकता होती है। जैसे- रेगिस्तान, युद्ध-स्थल, कैम्पों, शादी-विवाह आदि डीजल महंगा तथा सीमित होने के कारण इनका उपयोग बहुत खर्चीला होता है।

4. परमाणु पॉवर स्टेशन:- इस पॉवर स्टेशन में परमाणु ऊर्जा से विद्युत ऊर्जा बनायी जाती है। इसमें यूरेनियम जैसे रेडियोधर्मी पदार्थ के संलयन से ऊर्जा प्राप्त किया जाता है। इस ऊर्जा से पानी को गर्म करके भाप बनाया जाता है, फिर भाप को टरबाइन ब्लेड पर छोड़ा जाता है। जिससे टरबाइन घुमने लगता है। यह टरबाइन अल्टरनेटर के लिए प्राइम-मूवर का कार्य करता है।

तुल्यकालिक मोटर(Synchronous Motor)

तुल्यकालिक मोटर(Synchronous Motor)-

     तुल्यकालिक मोटर एक ऐसा मोटर है जो तुल्यकालिक गति पर घूमता है किन्तु स्वयं चालू नहीं होता है। इसको तुल्यकालिक घूर्णन  गति पर घूमने के लिए किसी अन्य स्रोत की आवश्यकता होती है किन्तु एक बार तुल्यकालिक घूर्णन गति प्राप्त कर लेने पर यह उसी गति पर घूर्णन करता रहता है। जिसके बाद इस पर लोड संयोजित किया जा सकता है। इसकी घूर्णन गति निम्न सूत्र से ज्ञात की जाती है।

N= (f×120)∕P 

 जहाँ,                 Nतुल्यकालिक मोटर की घूर्णन गति

                        f =ए.सी. श्रोत की फ्रीक्वेन्सी

                   P = रोटर पोल्स की संख्या

सिद्धान्त:-

तुल्यकालिक मोटर

     इस मोटर का सिद्धान्त चित्र द्वारा समझाया गया है। इसमें स्टेटर को डी.सी. सप्लाई तथा आर्मेचर को ए.सी. सप्लाई दिया गया है जिससे स्टेटर पर स्थिर चुम्बकीय क्षेत्र N तथा S बने है। जबकि किसी छड़ (स्थिति-a) रोटर पर क्रमशः 1,2,3 पोल्स पर क्रमशः S, N तथा S चुम्बकीय क्षेत्र बने है। इस स्थिति में रोटर प्रतिकर्षण के कारण घुमने (माना दक्षिणावर्त) का प्रयास करेगा किन्तु 1/50 सेकेण्ड (ए.सी. फ्रीक्वेंसी) में ही स्थिति-b आ जाएगी जिससे रोटर में N की जगह S और S की जगह N हो जायेगा और आकर्षण के कारण रोटर घूमना बंद कर देगी। फिर 1/50 सेकेण्ड में स्थिति-a आ जाएगी और रोटर घुमाने का प्रयास करेगा किन्तु पुनः 1/50 सेकेण्ड बाद स्थिति-b आ जाएगी और रोटर घूमना बंद कर देगी। अब यदि रोटर को किसी वाह्य श्रोत द्वारा इतना तेज घुमा दिया जय कि 1/50 सेकेण्ड में स्टेटर के N-ध्रुव के सामने रोटर का पोल-2 हटकर पोल-1 आ जाये तो, उस समय पोल-1 में N-ध्रुव ही होगा और प्रतिकर्षण का बल सदैव काम करेगा जिससे मोटर घुमने लगेगी।

तुल्यकालिक मोटर के प्रकार:-

1. सामान्य तुल्यकालिक मोटर, 2. ऑटो तुल्यकालिक मोटर

1. सामान्य तुल्यकालिक मोटर:- इस मोटर में स्टेटर पर थ्री-फेज वाइण्डिंग स्थापित की जाती है और रोटर पर स्थायी ध्रुवता पैदा करने के लिए डी.सी. वाइण्डिंग की जाती है। रोटर को डी.सी. सप्लाई प्रदान करने के लिए मोटर की सॉफ्ट से एक छोटा डी.सी. शंट जनित्र जोड़ा जाता है, जिसे एक्साइटर कहते हैं। इसमें रोटर को किसी प्राइम मूवर के द्वारा तुल्यकालिक गति पर घुमाया जाता है। जैसे ही रोटर तुल्यकालिक गति प्राप्त कर लेता है प्राइम मूवर को हटा लिया जाता है और मोटर सतत तुल्यकालिक गति पर घूमती रहती है।

लाभ- 1. सामान्य लोड से अधिक लोड होने पर रोटर की गति कम हो जाती है तथा मोटर रुक जाती हैं।

2. इसकी क्षेत्र उत्तेजना को परिवर्तित करके मोटर के पॉवर-फैक्टर को भी परिवर्तित किया जा सकता है।

3. वोल्टेज के घटने-बढ़ने(5-10%) का मोटर की गति पर कोई प्रभाव नही पड़ता है।

हानि- 1. वोल्टेज के अधिक घटने-बढ़ने पर मोटर रुक जाती है।

2. मोटर का स्टार्टिंग तक शून्य होता है अत: इसे लोड पर चालू नहीं किया जा सकता।

3. मोटर को चालू करने के लिए दोनों प्रकार का श्रोत(A.C. D.C.) तथा एक प्राइम मूवर की आवश्यकता पड़ती है।

4. मोटर की घूर्णन गति को घटाया-बढ़ाया नही जा सकता।

उपयोग- 1. नियत घूर्णन गति पर कार्य करने वाले कम प्रेशर पंप आदि में।

2. जनित्र अथवा अल्टरनेटर के घूर्णन गति नियत रखने के लिए।

2. ऑटो तुल्यकालिक मोटर:- सामान्य तुल्यकालिक मोटर को लोड के साथ चालू नहीं किया जा सकता। इस कमी को दूर करने के लिए ऑटो तुल्यकालिक मोटर बनाई गई यह दो प्रकार के होते हैं।

1. इंडक्शन टाइप ऑटो तुल्यकालिक मोटर

2. सैलिएन्ट पोल टाइप ऑटो तुल्यकालिक मोटर

1. इंडक्शन टाइप ऑटो तुल्यकालिक मोटर:-

   इस मोटर के रोटर पर 3-फेज स्लिप रिंग वाइण्डिंग स्थापित कर दी जाती है जिसको एक वाह्य 3-फेज रिहोस्टेट से संयोजित कर दिया जाता है। यह पूरा संयोजन 3-फेज इंडक्शन मोटर की तरह कार्य करता है। जब मोटर को स्टार्ट किया जाता है तो 3-फेज रिहोस्टेट मोटर को तुल्यकाली घूर्णन गति तक घूमता है और जब मोटर तुल्यकाली घूर्णन गति पर घूमने लगता है तो एक चेंजर स्विच की सहायता से रिहोस्टेट को परिपथ से अलग कर दिया जाता है तथा रोटर को एक्साइटर से संयोजित कर दिया जाता है।

लाभ- 1. यह लोड के साथ भी चालू किया जा सकता है।

2. इसको चालू करने के लिए अलग से किसी प्राइम मूवर की आवश्यकता नहीं होती है।

3. यह मोटर इकाई पावर फैक्टर पर कार्य करता है।

हानि- 1. इसकी लागत अधिक होती है।

उपयोग- 1. सीमेंट रोलिंग कॉटन तथा पेपर मिलो जैसे भारी लोड वाले स्थान पर इसका प्रयोग किया जाता है।

2. सैलिएन्ट पोल टाइप ऑटो तुल्यकालिक मोटर:-

     इस प्रकार के मोटर के रोटर पर उभरे हुए पोल्स बनाए जाते हैं। इन पोल्स पर वाइण्डिंग की गई होती है जिसमें डी.सी. सप्लाई दी जाती है। यह डी.सी. सप्लाई एक्साइटर से दी जाती है। यह मोटर कम लोड पर चालू करने के लिए प्रयुक्त होता है। इस मोटर का उपयोग विद्युत वितरण लाइनों में पावर फैक्टर सुधारने के लिए किया जाता है।

तुल्यकालिक मोटर को चालू करने की विधियाँ:- सामान्य तुल्यकालिक मोटर स्वयं चालू नहीं हो पाते हैं अतः उन्हें निम्न वीधियों से चालू किया जाता है।

1. पोनी मोटर द्वारा:- यह एक ऐसी मोटर होती है जिसकी पोल की संख्या तुल्यकालिक मोटर की पोल की संख्या से एक जोड़ा कम रखा जाता है। जिससे इसकी घूर्णन गति तुल्कालिक मोटर की घूर्णन गति से अधिक होती है। जब पोनी मोटर से तुल्यकालिक मोटर को स्टार्ट किया जाता है उस समय तुल्यकालिक मोटर में डी.सी. सप्लाई नहीं दी जाती है। किंतु जब तुल्यकालिक मोटर अपने तुल्यकालिक गति पर घूर्णन करने लगता है तब एक्साइटर से रोटर को डी.सी. सप्लाई शुरू कर दिया जाता है तथा पोनी मोटर को हटा लिया जाता है।

2. डी.सी. मोटर द्वारा:- इसमें तुल्कालिक मोटर को स्टार्ट करने के लिए डी.सी. कम्पाउण्ड मोटर का उपयोग किया जाता है। इसके लिए तुल्यकालिक मोटर के स्टेटर को 3-फेज सप्लाई से संयोजित कर डी.सी. मोटर चली कर दी जाती है। जब तुल्यकालिक मोटर की घूर्णन गति तुल्यकालिक गति के बराबर हो जाती है तो एक्साइटर द्वारा रोटर पोल्स को पूर्ण डी.सी. वोल्टेज प्राप्त होने लगता है तथा डी.सी. मोटर को बंद कर दिया जाता है।

3. सैल्फ-स्टार्टिंग विधि:- इसमें तुल्यकालिक मोटर के रोटर पर स्क्विरल केज अथवा स्लिप-रिंग प्रकार की वाइण्डिंग की जाती है। जिससे तुल्यकालिक मोटर को इण्डक्शन मोटर की तरह चालू किया जा सकता है तथा तुल्यकालिक गति प्राप्त कर लेने पर यह तुल्यकालिक मोटर की तरह कार्य करने लगता है।

तुल्यकालिक मोटर तथा इण्डक्शन मोटर की तुलना

तुल्यकालिक मोटर

इण्डक्शन मोटर

1. इसकी घूर्णन गति प्रत्येक लोड पर स्थिर रहती है

1. इसकी घूर्णन गति लोड बढ़ाने पर घट जाती है

2. यह लैगिंग तथा लीडिंग दोनों पॉवर फैक्टर पर काम करता है

2. इस मोटर को चलाने के  बाद पॉवर फैक्टर लैगिंग हो जाता है

3. इसका उपयोग यान्त्रिक शक्ति प्राप्त करने तथा पॉवर फैक्टर को सुधारने के लये भी किया जाता है

3. इसका उपयोग यान्त्रिक शक्ति प्राप्त करने के लये किया जाता है

4. यह केवल तुल्यकालिक गति पर ही घूर्णन करता है।

4. यह तुल्यकालिक गति से कम गति पर घूर्णन करता है।

5. यह स्वयं चालू नही होता है

5. यह स्वयं चालू हो जाता है

6. इसकी प्रारम्भिक टार्क शून्य होती है

इसकी प्रारम्भिक टार्क अधिकतम होती है

7. इसको चलाने के लिए ए.सी. व डी.सी. दोनों प्रकार के श्रोत की आवश्यकता होती है

7. इसको चलाने के लिए केवल ए.सी.  श्रोत की आवश्यकता होती है

 

हंटिंग या फेज स्विंगिंग:- तुल्यकालिक मोटर में प्रायः यह दोष रहता है जब इस मोटर के लोड में परिवर्तन होता है तो मोटर की घूर्णन गति भी परिवर्तित होने का प्रयास करती है इसी समय आरोपित वि.वा.बल द्वारा रोटर वाइण्डिंग में प्रेरित होने वाले वि.वा.बल का फेज कोण परिवर्तित हो जाता है, जो घूर्णन गति परिवर्तन का विरोध करता है। जिसके करण रोटर कम्पन करने लगता है। इसे ही हंटिंग कहते है।

निवारण:- इसको दूर करने के लिए तुल्यकालिक मोटर के रोटर पोल्स पर फील्ड वाइण्डिंग के अतिरिक्त स्क्विरल फेज रोटर की भाँति केज वाइण्डिंग भी स्थापित की जाती है। इसे डैम्पर वाइण्डिंग कहा जाता है। जब रोटर की घूर्णन गति, तुल्यकालिक गति के बराबर हो जाती है तो डैम्पर वाइण्डिंग का कार्य स्वतः ही समाप्त हो जाता है।

डैम्पर वाइण्डिंग